9 अप्रैल विशेष:- *शोषित-उत्पीडित जनता के नायक थे राहुल सांकृत्यायन*


 

*शोषित-उत्पीडित जनता के नायक थे राहुल सांकृत्यायन*


आज 9 अप्रैल को महाविद्रोही, महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जन्मदिन है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में एक पिछड़े गाँव पन्दहा में 9 अप्रैल, 1893 को जन्मे राहुल का मूल नाम केदार पाण्डेय था। बौद्ध धर्म में आस्था रखने के कारण उन्होंने अपना नाम बदल कर राहुल रख लिया था और फिर राहुल सांकृत्यायन नाम से विख्यात हुए। रानी की सराय और निजामाबाद में अनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। उन्होंने 1907 में उर्दू मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने कभी विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की। अपने घूमने के अनुभव के आधार पर ही उन्होंने साहित्य का सृजन किया। भारतीय इतिहास में ऐसे प्रचण्ड तूफानी व्यक्तित्व बहुत कम हैं। एक ठहरे हुए और रुढ़ियों में जकड़े समाज के प्रति उनके मन में बचपन से ही बग़ावत की भावना पैदा हो गई थी। 14 साल की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया जिसके विरोध में वे घर परिवार को छोड़ दिया, फिर वे एक मन्दिर के महन्त बने, महन्त से आर्यसमाजी, फिर बौद्ध और अन्त में कम्युनिस्ट, दुनिया काे देखा किताबाें में नहीं बल्कि संघर्ष भरी यात्रा में। लाेगाें से संवाद किया। 26 भाषायें सीख डाली। किसानाें की लड़ाई लड़ते हुए कई बार जेल गये। जाति-मजहब और पुरानी रूढियाें काे विचाराें की ताप से जलाकर भस्म कर दिये। लिखते-पढ़तेे-लड़ते-लाेगाें की मानसिक गुलामी पर चाेट करते हुए वाे अन्तिम सांस लिये।

राहुल सांकृत्यायन सदा घुमक्कड़ रहे। 1929 से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर इसका अंत उनके जीवन के साथ ही हुआ। राहुल संकृत्यायन ने बचपन से ही घूमने का जो सिलसिला शुरू किया, उससे उनके ज्ञान का भंडार और समृद्ध होता गया। उन्होंने अनेक देशों की विकट और बीहड़ यात्राएं कीं, भाषा, सामाजिक विविधता और मानवजन को नजदीकी से समझकर उसे समाज परिवर्तन के हथियार में तब्दील किया। ज्ञानार्जन के उद्देश्य से प्रेरित उनकी इन यात्राओं में श्रीलंका, तिब्बत, जापान और रूस की यात्राएं विशेष उल्लेखनीय हैं। वे चार बार तिब्बत पहुंचे। राहुल सांकृत्यायन की रुचि बौद्ध धर्म में बढ़ती गई और 1930 में श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर राहुल सांकृत्यायन नाम धारण किया। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भंडार को देख कर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी। बुद्ध, मार्क्स, लेनिन और माओ से काफी प्रभावित थे। राहुल सांकृत्यायन एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होनें आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनके मुक्ति के विचार को समझा। उनके बीच रहते हुए शोषित वर्ग को शोषक वर्ग के विरुद्ध जगाने का काम ही नहीं किया बल्कि संघर्षों में उनके हमराही भी बने रहे। वे वास्तव में मेहनतकश जनता के सच्चे सिपाही थे। वे अंधविश्वास के ख़िलाफ़ तर्क और विज्ञान का झंडा बुलंद करने वाले, भागो नहीं, दुनिया को बदलो की अलख जगाने वाले एक जननायक थे। समानता और न्याय पर टिके तथा हर प्रकार के शोषण और भेदभाव से मुक्त समाज बनाने की राह अंततः उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा में मिली। वे इससे जुड़ गए और मज़दूरों-किसानों की हर प्रकार से मुक्ति के संघर्ष और उनके दिमाग़ों पर कसी बेड़ियों को तोड़ने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामंती शोषण-उत्पीडन के ख़िलाफ़ किसानों की लड़ाई का मोर्चा, वह हमेशा अगली कतारों में रहे। अमवारी में लाठियां खाई, अनेक बार जेल गये, यातनाएं झेलीं। अंग्रेजी व देशी गुलामी के ख़िलाफ़ स्वामी सहजानंद के साथ मिलकर किसान सभा बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला भी किया, लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो वह कभी संघर्ष से पीछे हटे और न ही उनकी कलम रुकी। उन्होंने सीधी-सरल भाषा में ढेरों छोटी-छोटी पुस्तकें और सैकड़ों लेख लिखे। उन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रावृत्त, निबंध, आत्मकथा, जीवनी, साहित्यालोचन, राजनीति और इतिहास आदि विषयों पर लगभग डेढ़ सौ ग्रंथों की रचना की है। दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, बोल्गा से गंगा, दर्शन-दिग्दर्शन, मानव समाज, वैज्ञानिक भौतिकवाद, जय यौधेय, सिंह सेनापति, साम्यवाद ही क्यों, बाईसवीं सदी, सतमी के बच्चे, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा, जीने के लिए, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदास, मेरी जीवन यात्रा जीवनियां, सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, बचपन की स्मृतियां, अतीत से वर्तमान, स्तालिन, लेनिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, आदि रचनाएं उनकी महान प्रतिभा की मिसाल हैं। बौद्ध दर्शन से लेकर, इस्लाम धर्म की रूपरेखा जैसी रचनाएँ हों, या मार्क्स, लेलिन, स्टालिन, माओ से लेकर चन्द्र सिंह गढवाली तक की जीवनियाँ, उनकी विविध रचनाओं के दर्पण हैं।

मज़दूरों-किसानों के प्यारे राहुल सांकृत्यायन लगातार, पूरी गति से आजीवन वे काम करते रहे। काम पर ज्यादा जोर होने के कारण खुद के स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान ना दे पाने के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया। जिससे वो धीरे-धीरे बीमार हो गए। आर्थिक परेशानी से उनका ठीक से इलाज भी नहीं हो सका और 14 अप्रैल 1963 को 70 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनका कर्म और विचार मेहनतकश वर्ग के लिए आज भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं। उनका समूचा जीवन, कर्म व लेखन विद्रोह का जीता-जगाता प्रमाण है। इसलिए वे महापंडित भी थे और महाविद्रोही भी।








राहुल सांकृत्यायन के कुछ उद्धरण दे रहा हूँ जो उन्होने बेबाकी से कहा-

देश की स्वाधीनता के लिए जो उद्योग किया जा रहा था, उसका वह दिन निस्सन्देह, अत्यन्त बुरा था, जिस दिन स्वाधीनता के क्षेत्र में ख़िलाफ़त, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान देना आवश्यक समझा गया। एक प्रकार से उस दिन हमने स्वाधीनता के क्षेत्र में एक कदम पीछे हटकर रखा था।

सामाजिक रूढियों पर तीखा प्रहार करते हुए वे लिखते हैं-
आंख मूंदकर हमें समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक–एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें दाहिने–बायें, आगे–पीछे दोनों हाथ नंगी तलवार नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना चाहिए।

वहीँ दूसरी ओर लिखते हैं-
धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।

धर्म पर कटाक्ष करते हुवे कहते हैं-
धर्म आज भी वैसा ही हज़ारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासता का समर्थक है जैसा पाँच हज़ार वर्ष पूर्व था।.... सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिये तो मनुष्यता पनाह माँग रही है।

शोषक वर्ग को किस तरह से बेबाकी से लताड़ते हैं-
जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे। ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं लोगों की तरफ से फैलाई गयी हैं जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे ख्याल है धन बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। गरीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर जो ख्याल पैदा किये गये हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नजर दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता खुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।

गुलामी और त्रासदियों का कारण जातिभेद बताते हुए वे लिखते हैं-
पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होगा कि हिन्दुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद न केवल लोगों को टुकडे-टुकडे में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है।

उनका स्पष्ट मानना था कि–
जनता के सामने निधड़क होकर अपने विचार को रखना चाहिए और उसी के अनुसार काम करना चाहिए। हो सकता है, कुछ समय तक लोग आपके भाव न समझ सकें और ग़लतफ़हमी हो, लेकिन अन्त में आपका असली उद्देश्य हिन्दू-मुसलमान सभी गरीबों को आपके साथ सम्बद्ध कर देगा।

रूढ़ियों पर किस तरह से प्रहार करते हैं-
रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।

राहुल सांकृत्यायन सीधे सवाल उठाते हैं-
जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफनाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनंद आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पलभर भी बर्दाश्त करना चाहिए?

राहुल सांकृत्यायन किस तरह से क्रांति की तरफ बढ़ने को कहते हैं-
हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा। यदि जनबल पर विश्‍वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।


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